राजनीती

एक कवि, एक राजनेता, एक युगद्रष्टा : श्रीकांत वर्मा की पुण्यतिथि पर ‘मगध’ की पुकार

श्रीकांत वर्मा की पुण्यतिथि पर ‘मगध’ की प्रासंगिकता और उनका राजनीतिक-साहित्यिक यथार्थ

— डॉ. अभिषेक वर्मा

25 मई 2025, आज मेरे पिता स्वर्गीय श्रीकांत वर्मा जी की 39वीं पुण्यतिथि है—उनके इस संसार से विदा लेने का दिन। यह तिथि मेरे लिए केवल एक स्मृति नहीं, बल्कि आत्मचिंतन और वैचारिक विरासत के पुनः मूल्यांकन का अवसर बन जाती है।

25 मई 1986 की सुबह, न्यूयॉर्क के स्लोन केटरिंग मेमोरियल अस्पताल में, मेरे सामने उन्होंने अंतिम साँस ली। कैंसर और उससे जुड़ी जटिलताओं से जूझते हुए वे अस्पताल में चार महीने तक भर्ती रहे। उस समय मेरी उम्र मात्र 18 वर्ष 6 महीने थी।

उनके अंतिम दिनों में, जब वे पूरी तरह सचेत थे और सर्जरी नहीं हुई थी, उन्होंने मुझे अकेले में बुलाकर कहा था:

“बेटा, मुझे नहीं पता मैं ज़िंदा भारत लौट पाऊँगा या नहीं, लेकिन तुम इस परिवार को शान से आगे बढ़ाना… और अपनी माँ का ध्यान रखना।”

उनके ये शब्द मेरी आँखों में आँसू ले आए। तब मुझे अंदेशा नहीं था कि यही उनके जीवन के अंतिम शब्दों में से होंगे। दुर्भाग्यवश, वही हुआ—मेरी माँ वीणा वर्मा, चाचा शिवकांत वर्मा, मामा अनिल रायज़ादा और मैं तो भारत लौटे, लेकिन उनके पार्थिव शरीर के साथ। 28 मई 1986 को, एयर इंडिया की उड़ान से दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार किया गया।

श्रीकांत वर्मा न केवल एक वरिष्ठ राजनेता थे, बल्कि वे एक गंभीर चिंतक, कवि और यथार्थवादी भी थे। उनका जीवन साहित्य और राजनीति के बीच एक सेतु था, जहाँ दोनों धाराएँ एक-दूसरे को प्रेरित करती थीं—लेकिन कभी एक-दूसरे में विलीन नहीं होती थीं।

वे दो बार राज्यसभा सदस्य रहे और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव के रूप में इंदिरा गांधी और बाद में राजीव गांधी के निकट सहयोगी भी। वे नेहरूवादी उदारवाद के समर्थक थे, परन्तु उनमें सत्ता के भीतर रहकर सत्ता की आलोचना करने का साहस भी था।

उनकी वैचारिक स्पष्टता और नैतिक निर्भीकता की झलक हमें उनकी कालजयी काव्यकृति ‘मगध’ में स्पष्ट रूप से मिलती है।

मगध’ केवल एक कविता-संग्रह नहीं, बल्कि सत्ता, विचार और इतिहास के विरुद्ध एक सशक्त बौद्धिक प्रतिरोध है। यह संग्रह ऐतिहासिक प्रतीकों के माध्यम से समकालीन राजनीति की गहराई से व्याख्या करता है।

जब वे ‘मगध’ लिख रहे थे, तब स्वयं सत्ता के केंद्र में थे, पर उनकी कविताओं में कहीं भी चाटुकारिता या आत्ममुग्धता नहीं थी। यह दुर्लभ उदाहरण है, जहाँ एक सांसद सत्ता के बीच खड़े होकर, कविता के माध्यम से सत्ता की सीमाओं को प्रश्नांकित करता है।

उनकी कविता “कोसल में विचारों की कमी है” में वे लिखते हैं:

महाराज बधाई हो! महाराज की जय हो।
युद्ध नहीं हुआ—
लौट गए शत्रु।

वैसे हमारी तैयारी पूरी थी!
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएँ,

दस सहस्त्र अश्व,
लगभग इतने ही हाथी।

कोई कसर न थी!
युद्ध होता भी तो

नतीजा यही होता।
न उनके पास अस्त्र थे,

न अश्व,
न हाथी,

युद्ध हो भी कैसे सकता था?
निहत्थे थे वे।

उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था

प्रत्येक अकेला होता है!
जो भी हो,

जय यह आपकी है!
बधाई हो!

राजसूय पूरा हुआ,
आप चक्रवर्ती हुए—

वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गए हैं
जैसे कि यह—

कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है!

यह कविता हर उस व्यवस्था पर सवाल उठाती है जहाँ बाहरी व्यवस्था तो सुदृढ़ प्रतीत होती है, लेकिन आंतरिक रूप से विचारहीनता उसे खोखला बना देती है।

2025 के भारत में जब राजनीति तेजी से विचारशून्यता की ओर बढ़ रही है, जब संसद में बहस कम और हो-हल्ला ज़्यादा है, जब नीतियाँ प्रचार के पीछे छिप जाती हैं—तब ‘मगध’ हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र की आत्मा चुनावी जीत नहीं, बल्कि विचारों की स्वतंत्रता और विवेकपूर्ण असहमति में निहित होती है।

‘मगध’ आज के युवाओं के लिए भी ज़रूरी है, जो राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का माध्यम समझते हैं। यह संग्रह बताता है कि राजनीति एक विचार-भूमि है, जहाँ दृष्टिकोण और सिद्धांतों की नींव पर भविष्य का निर्माण होता है।

श्रीकांत वर्मा ने कभी सत्ता से समझौता नहीं किया। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के इतने निकट होते हुए भी उनका साहित्य सत्ता का प्रवक्ता नहीं बना। इंदिरा जी उन्हें एक बौद्धिक और नैतिक दृष्टा के रूप में मानती थीं—जो सत्ता को उसका आईना दिखाने में संकोच नहीं करता था।

एक पुत्र के रूप में मैंने न केवल अपने पिता को खोया, बल्कि उस मार्गदर्शक को भी, जिनकी छाया मेरे हर निर्णय पर थी। लेकिन उनकी दी हुई आध्यात्मिक, नैतिक और वैचारिक विरासत आज भी मेरे भीतर जीवित है।

आज उनकी 39वीं पुण्यतिथि पर, ‘मगध’ फिर से हमें आवाज़ देता है:

चाहता तो बच सकता था
मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा

श्रीकांत वर्मा

पिता को शत्-शत् नमन।

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